शनि ग्रह और कुछ उपाय
**पौराणिक दृष्टि** -वैदिक कथाओ और पुराणों के अनुसार शनि ग्रह शनि देवता को संबोधित करता है , शनि देव जो कि न्याय के देवता माने जाते है, उनको सदैव वही लोग भाते है जो, सच्चाई, और न्याय के पथ पर चलते है, जो सदैव दुसरो की और विशेषता उन लोगो की सहायता करते है जो जरूरतमंद है और जो दया के पात्र हैं ।
शनि देव के कुछ वाहन है जिनको शुभ माना गया है, जैसे , हंस , मोर, और कुछ ऐसे भी वाहन है जिनका मिला जुला परिणाम मिलता है, जैसे , कौआ , भैंसा, कुत्ता ।
**शनि ग्रह और ज्योतिष :**-ज्योतिष शास्त्र में शनि को पाप व अशुभ ग्रह माना गया है | ग्रह मंडलमें शनि को सेवक का पद प्राप्त है| यह मकर और कुम्भ राशियों का स्वामी है |यह तुला राशि में उच्च का तथा मेष राशि में नीच का माना जाता है | कुम्भ इसकी मूल त्रिकोण राशि भी है |शनि अपने स्थान से तीसरे, सातवें,दसवें स्थानको पूर्ण दृष्टि से देखता है और इसकी दृष्टि को अशुभकारक कहा गया है |जनमकुंडली मेंशनि षष्ट ,अष्टम भाव का कारक होता है |शनि की सूर्य -चन्द्र –मंगल सेशत्रुता , शुक्र – बुध से मैत्री और गुरु से समता है | यह स्व ,मूलत्रिकोण व उच्च,मित्र राशि –नवांश में ,शनिवार में ,दक्षिणायनमें , दिन के अंत में ,कृष्ण पक्ष में ,वक्री होने पर ,वर्गोत्तम नवमांश में बलवान व शुभकारक होता है |
प्रसिद्ध ज्योतिष ग्रंथोंके अनुसार शनि लोहा ,मशीनरी ,तेल,काले पदार्थ,रोग, शत्रु,दुःख ,स्नायु ,मृत्यु ,भैंस ,वात रोग ,कृपणता ,अभाव ,लोभ ,एकांत, मजदूरी, ठेकेदारी ,अँधेरा ,निराशा ,आलस्य ,जड़ता ,अपमान ,चमड़ा, पुराने पदार्थ ,कबाडी ,आयु ,लकड़ी ,तारकोल ,पिशाच बाधा ,संधि रोग ,प्रिंटिंग प्रैस ,कोयला ,पुरातत्व विभाग इत्यादि का कारक है |
जनम कुंडली में शनि अस्त ,नीच या शत्रु राशि का ,छटे -आठवें -बारहवें भाव में स्थित हो ,पाप ग्रहों से युत या दृष्ट, षड्बल विहीन हो तो कोढ़ ,वात रोग ,स्नायु रोग , पैर व घुटने के रोग ,पसीने में दुर्गन्ध , संधिवात, चर्म रोग , दुर्घटना , उदासीनता , गठिया ,थकान ,पोलियो इत्यादि रोग उत्पन्न करता है |
**शनि की साढ़ेसाती और ढैया** :-ज्योतिष के अनुसार शनि की साढेसाती की मान्यतायें तीन प्रकार से होती हैं,पहली लगन से दूसरी चन्द्र लगन या राशि से और तीसरी सूर्य लगन से,उत्तर भारत में चन्द्र लगन से शनि की साढे साती की गणना का विधान प्राचीन काल से चला आ रहा है.इस मान्यता के अनुसार जब शनिदेव चन्द्र राशि से पूर्व राशि में गोचर वश प्रवेश करते हैं तो साढेसाती आरम्भ हो जातीहै लगभग अढ़ाई वर्ष इस राशि में अगले अढ़ाई वर्ष जन्मराशी में और अंतिम अढ़ाई वर्ष जन्म राशि से अगली राशि में शनि का कुल गोचर काल साढ़े सात वर्ष होता है जिस कारण से इस अवधि को शनि की साढेसाती कहा जाता है | जन्म राशि से जब शनि चतुर्थ या अष्टम राशि में रहता है तो शनि का ढैया कहा जाता है |
जन्म कुंडली में शनि बलवान , शुभ भावों का स्वामी शुभ युक्त व शुभ दृष्ट हो कर शुभ फलदायक सिद्ध होता हो तो शनि कि साढेसाती या ढैया में अशुभ फल नहीं मिलता बल्कि उसका भाग्योत्थान व उत्कर्ष होता है |शनि के अष्टक वर्ग में यदि साढेसाती या ढैया कि राशि में चार या अधिक शुभ बिंदु प्राप्त हों तो भी शनि अशुभ फल नहीं देता | यदि जन्मकालीन शनि निर्बल ,अशुभ भावों का स्वामी , मारकेश ,पाप युक्त या दृष्ट ,अशुभ भावों में स्थित होने के कारण अशुभ कारक हो व अष्टक वर्ग में उस राशि में चार से कम शुभ बिंदु हों तो शनि कि साढेसाती या ढैया में चिता ,रोग व शत्रु से कष्ट ,अवनति ,आर्थिक हानि ,परिवार में मतभेद ,स्त्री व संतान को कष्ट ,कार्यों में विघ्न ,कलह ,अशांति होती है |
मेष ,कर्क ,सिंह,कन्या ,वृश्चिक ,मकर मीन राशि को मध्य के अढ़ाई वर्ष , वृष ,सिंह ,कन्या,धनु,मकर कुम्भ,मीन के आरम्भ के अढ़ाई वर्ष तथा मिथुन ,तुला ,वृश्चिक,कुम्भ,व मीन के अंतिम अढ़ाई वर्ष साढेसाती में अधिक अशुभ फलदायक होते हैं |
**दान व्रत ,जाप **– शनिवार के नमक रहित व्रत रखें | ॐ प्रां प्रीं प्रों सः शनये नमः मन्त्र का २३ ००० की संख्या में जाप करें | शनिवार को काले उडद ,तिल ,तेल ,लोहा,काले जूते ,काला कम्बल , काले रंग का वस्त्र इत्यादि का दान करें |
किसी लोहे के पात्र में सरसों का तेल डालें और उसमें अपने शरीर कि छाया देखें | इस तेल को पात्र व दक्षिणा सहित शनिवार को संध्या काल मे दान कर दें |
श्री हनुमान चालीसा का नित्य पाठ करना भी शनि दोष शान्ति का उत्तम उपाय है |